रविवार, 3 मई 2009

राजस्थानी कहानी




बम


- कमल किशोर पिंपलवा


अनुवाद- डा. मदन गोपाल लढ़ा


मेरी नींद उड़ गई। एक गहरा पछतावा सर उठाकर मुझे सताने लगा। मैंने फिर सोने की कोशिश की लेकिन सारे जतन नकारा साबित हुए। मैंने करवट बदली और आंसुओं से भीगी आंखों के कोरो को साफ करना चाहा। इसी वक्त एक जोरदार धमाका हुआ। मैंने सोचा कि कोई बावरी हिरण मार रहा होगा। लेकिन आह...। मैंने खड़े होकर पानी की एक घूंट गले में डाली लेकिन जलन नहीं मिटी।अचानक फिर एक जोरदार धमाका हुआ।रामूड़े की टपली उड़ गई। सतीये का कोठा जल गया। चारों तरफ तेज रोशनी हुई। ऐसा लगा जैसे गुवाड़ के बीच सूरज ऊग आया हो। ढोर-डांगर भागने लगे लेकिन बेचारे अपने प्राण पंखेरू बम देवता को सौंप कर हड्डियों के ढेर में बदल गए। चिमना गाय दुह रहा था लेकिन बछड़ों को शायद ही छोड़ पाया होगा। मेरी सांसे भी भारी हो गई। जी मिचलाने लगा। एक भंयकर गर्जना सुनाई दी। कुŸो भौकने लगे। मोर तो चुप रहने का नाम ही नहीं ले रहे थे। हंसिये के खिलौने टूट गए। खिलौनों से पहले वह भी ढ़ह गया। मिट्टी का मनुष्य ढे़र हो गया। पीथिया किसी को भी अपने खिलौनों के हाथ नहीं लगाने देता था। लेकिन आज जरा भी नहीं रोया। रेंवत दादा चिलम पीते हुए ही चल बसा। “ मुझे समझ में नहीं आता आदमी इतना वहशी क्यों हो जाता है।”“ खैर ....... यह तो विज्ञान का आविष्कार है।”“ आदमी बुद्धिजीवी हो गया है। इसी कारण उसने ऐसे आविष्कार किये हंै”“ क्या मिलता है उसे इस खून-खराबे में ?”“ मैं पूछता हूँ मिलता क्या है ?” लेकिन इस जगह तो मैं अकेला ही हूँ।मेरे सवालों का जवाब कौन देता। आदमी तो आदमी का दुश्मन हो गया है।उठने की जरा भी हिम्मत नहीं बची है। केवल सोचना ही बस में है। शरीर का अंग-2 टूट रहा है। हड्डियों में दर्द है।चारों ओर लाशों के ढे़र दिखाई दे रहे है। दिल दहलाने वाली कराहटें सुनाई दे रही है। मैंने एक लम्बी सांस ली। शरीर पर पसीने की धारा बहने लगी।“ठीक गांव के गुवाड़ के बीच में बम गिराया है दुश्मनों नें। दुश्मनी थी तो सरकार से, हमसे क्या चाहते थे। मैं पूछता हूँ आखिर आदमी आदमी का बैरी क्यों हो रहा है। मैंने क्या गुनाह किया था जो मुझे यह सजा मिली। मंैने उठने की कोशिश की लेकिन दर्द ने खड़ा नहीं होने दिया। फिर उसी जगह गिर पड़ा।“ मेरे मां और बापू कहां है ? परŸिाया कहां है ? परŸिाये की मम्मी कहां गई ? अर्द्धचेतना में मुझे उनकी याद आने लगी।“ मां ........ओ मां..........?”“...................................““ शायद वे दोनों भी मिट्टी में ही एकाकार हेा गये........।नहीं....नहीं। ऐसा नहीं हो सकता। मेरी मां मुझे छोड़कर नहीं जा सकती । यह झूठ है। एक सपना है। नहीं-नहीं सपना तो नहीं है। लूंगी की गांठ ठीक कर लूं और चलकर मां को ढूढूँ। मां मुझे ढूंढ़ रही होगी। आज मंैने चाय भी नहीं पी। मां चाय बनाएगी। मां ने मुझे चाय के लिए आवाज तो नहीं दी। आज तो वह भी नहीं दिख रही और न ही परŸिाया। सब कहां चले गये ?“ सोच फिल्म की भांति आखों के सामने चलने लगी। “ हे भगवान ! एक बार मुझे मेरी मां से मिला दे। तुम तो बड़े दयालु हो। दीन-दुखियों की सुनने वाले हो। तुमने ही तो शबरी के बेर चखे थे। मुझंे भी संभाल दीनानाथ !” करूणा से आंखे भर गई। हाथ अपने आप आकाश की ओर जुड़ गए और बिना शब्दों के मौन प्रार्थना हाने लगी। आंखे जल रही है। शरीर में दाह भी लगी है। चारों तरफ दुर्गन्ध आ रही है। आंखों में कुछ रड़क रहा है। दाढ़ी में खाज आ रही है। मन का बोझ लेकर मैं फिर पीछे मुड़ा। “ इस बार मैं खड़ा हो जाऊंगा। लेकिन शरीर में थोड़ी भी ताकत नहीं है। हां-हां खड़ा हो जाऊंगा.........।” लेकिन फिर गिर पड़ा। आकाश में काले धुंए के बादल नजर आ रहे है। सूरज भगवान भी धरती पर ऐसा तमाशा देखकर कहीं छिप गए है तभी तो चारों तरफ अंधकार पसर गया। कौन जाने रामजी क्या करेंगे। हँ ? ....... कंठ सूख रहे है। तेज प्यास लगी है। अब क्या करूं। यहां पानी कहां है! मैं गुवाड़ के बीच में अकेला पड़ा हूँ। शेखर, कालू, हरखल , रामजी, श्यामा सब निढ़ाल पड़े है। थोड़ी देर आंखों के आगे अंधेरा आ गया और चेतना खोती महसूस हुई। फिर संभला तो आंखों से गंगा-यमुना बहने लगी। अंतस की करूणा का समुद्र हिलोरे भरने लगा और हिचकिया लम्बी से लम्बी होने लगी। काला धुंआ सांस के साथ पेट में जाने लगा। मैंने दूसरी तरफ करवट बदली लेकिन फिर भी धुंए से पीछा नहीं छूटा। न्याय के के लिए सबसे बड़े हाकिम से अरदास करने लगा लेकिन मेरी अरदास बम के भार तले दब गई। मैंने गरदन उठा कर जेवाले गांव की तरफ देखा जिस पर मै पड़ा था । मातृभूमि के विनाश को देखकर भी मेरा मन रोने के अलावा कुछ नहीं कर सका। हे भगवान! धरती माता के लिए मैं ठीक से रो भी नहीं सका। धरती के लिए मेरे मन में हेत जग गया। शक्तिहीन हाथों से झुक कर मैंने मिट्टी का टीका माथे पर लगा लिया। इस टीके से मुझे सुकून मिला। मैंने आंखें खोली। धुंआ मेरी जान का दुश्मन बन रहा था। धुंए के कारण मेरे शरीर में शूलें चुभने लगीं। अंग-अंग जलने लगा। आंखों की जलन असहनीय हो गई। मैंने आंखे बन्द करनी चाही लेकिन पार नहीं पड़ी। मैंने फिर करवट बदलने की कोशिश की लेकिन हिला भी नहीं गया। मैंने गर्दन जमीन पर टिका दी। धुंए ने हवा को अपनी गिरफ्त में ले लिया। धुंआ, गर्मी, जलन और प्यास। मैंने दूसरी तरफ देखना चाहा। कुछ भी तो नहीं दिखा। धरती घूमने लगी। हवेली, झौपड़ी, तालाब, खड्डा.........। मेरी आंखों के सामने धमाके के सारे दृश्य फिर घूमने लगे।

1 टिप्पणी:

सुभाष नीरव ने कहा…

दुष्यंत जी, आप अपने ब्लॉग "रेतराग" के माध्यम से राजस्थानी साहित्य को अनुवाद के माध्यम से हिन्दी पाठकों के सम्मुख लाकर बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। जहाँ आज अधिकांश ब्लॉग ब्लॉगकर्ता की अपनी रचनाओं से भरे होते हैं, वहाँ ब्लॉग की दुनिया में "रेतराग" जैसे लीक से हटकर ब्लॉग देखकर सुखद अहसास होता है। "बम" कहानी जो कि लघुकथा के बहुत करीब है, आज के विनाशकारी समय में एक मार्मिक कहानी है परन्तु, जगह जगह पर टंकण की अशुद्धियाँ अखरती हैं और रचना के प्रवाह को भी अवरुद्ध करती हैं। रचना को यूनिकोड में टाइप कर लेने के बाद पोस्टिंग से पहले यदि उसका पूर्वालोकन कर लिया जाए और अशुद्धियों को दूर कर लिया जाए, तो बेहतर रहता है।
शुभकामनाएँ !