शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

नीम न मीठो होय




मूल राजस्थानी कहानी : रामेश्वर गोदारा 'ग्रामीण'
अनुवाद: डॉ. मदनगोपाल लढ़ा

लेकिन बापू के सामने क्या कहेगी। बड़े साब से कैसे बता पाएगी वह सब, जो उसके साथ हुआ। केवल सलवार दिखाने से ही साब समझ जाएंगे। साब उसे न्याय दिलाएंगे। उस दरिन्दे को पकड़ कर जेल में डाल देंगे। उसे न्याय मिल जाएगा। साब बड़े आदमी हैं। गरीबों की भी सुनेंगे। वे बिकने वाले नहीं है। थानेदार की तरह वे सरपंच की नहीं सुनेंगे।


अन्दर बैठे साब ने उनको बाहर बैठकर इंतजार करने के लिए कहा है। अन्दर कोई जरूरी खुसर-फुसर चल रही है। दोनों बाप-बेटी बाहर खड़े नीम तले आकर फ्रीज हो गए हैं। नीम की हरियाली पीलेपन से दबी जा रही है। हवा बंद है। उन दोनों के बीच पसरा हुआ मौन अंगड़ाई तोड़ रहा है। लड़की जवान है। सोलह बरस की। बाप बूढ़ा है। एकदम चरमराया हुआ। बूढ़े के चेहरे पर झुर्रियों का रामराज्य है और इस रामराज्य की बॉडीगार्ड बनी हुई डाढ़ी इधर-उधर मुस्तैद खड़ी है। बूढ़े की गरदन के दोनों तरफ दो पिल्लर जैसी नसें तनी हुई खड़ी हंै। शायद इन पिल्लरों के भरोसे ही बूढ़े का सिर अपनी जगह मौजूद है। इसी सर में कीड़े कुलबुला रहे हैं। ये कीड़े पिछले तीन-चार दिनों से उसे कच-कच काटते चले आ रहे हैं। बूढ़ा जब भी इन कीड़ों को बाहर निकाल फैंकने के लिए सर झटकता है तब कीड़े सांप बनकर उसके भेजे में घूमने लगते हंै। इन सांपों को मारने के लिए बूढ़े के पास कोई साधन नहीं है लेकिन फिर भी वह इनका सामना करने की सोचता है। वे सांप फण तानकर फुंफकारते हैं। उसे बार-बार डसते हंै लेकिन बूढ़ा मरता नहीं। उसे दिल का दौरा नहीं पड़ता। इस जहर से बूढ़े का चेहरा उस मरुस्थल जैसा बन गया, जिसके झाड़-झंखाड़ों को भेड़-बकरियों ने चर लिया हो। बूढ़े की धंसी हुई आंखों में पानी तो है लेकिन सपने पथरा गए है। वे सारे सपने जिनका ताना-बाना बूढ़े ने आज तक बड़े जतन से बुना था अब चदरिया बुनने से कन्नी काट रहे हैं। लड़की सलवार-कुरता पहने सलीके से औकडू बैठी है। बापू के ठीक सामने। उसके हाथ में नीम का तिनका कैद है। वो उसे धरती पर चलाए जा रही है-बेतरतीब। कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें बन रही हैं, मगर कोई चित्र नहीं बन पाता। चित्र तो बेचारी लड़की की कल्पनाओं में भी नहीं है। लड़की एक क्षण के लिए नजर उठाकर बापू की ओर देखती है। बापू कहीं गहरे डूबे हुए है। लड़की सोचती है कि वह बापू के लिए बूढ़ापे की लाठी तो नहीं बन पाई, उलटा उनकों ही लंगड़ा कर डाला। अब वे ज्यादा दिन जी नहीं पाएंगे। यदि वह नहीं होती, तो बापू आधी मौत नहीं मरते। तभी उनके बीच नीम का एक पत्ता आकर गिर जाता है। एक बार दोनों यूं ही उसे देख भर लेते है। पत्ते पर उनकी किस्मत लिखी हुई नहीं है। पत्ते से ध्यान हटते ही दोनों बाप-बेटी फिर एक दूसरे को देखते हैं लेकिन पल भर में ही ध्यान हटा लेते हंै। दोनों की हिम्मत जवाब दे चुकी है। लड़की बापू से आंख नहीं मिला सकी, तो उसने सीधी सड़क पर देखना शुरू कर दिया। दोपहर की तेज धूप में सूनी पड़ी सड़क उसे विकराल काली नागिन-सी लहराती नजर आई। लू से उसे ऐसा लगा, जैसे वह नागिन लोटपोट खाते हुए ऊपर-नीचे होकर सांस ले रही है और इसी तरफ आ रही है। लड़की डर गई। उसे लगा, मानों सड़क उसे निगलना चाहती है। उसने सड़क से ध्यान हटा लिया तथा सामने वाले दरवाजे की ओर देखा। वहां संतरी पहरा लगा रहा था। जबसे वह यहां आई है तब से संतरी उसे ताक रहा है। तंग आकर लड़की ने अपना ध्यान नीम तक ही समेट लिया। नीम के नीचे बापू का उदास चेहरा पड़ा है- भूखे बैल जैसा। वो बापू का चेहरा देर तक नहीं देख पाई। उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। उसे बापू पर दया आ रही है। वो सोचने लगी-वह बापू से बात करेगी। परन्तु क्या? बापू क्या सोच रहा है। वह कब से मुर्दे की तरह बैठा है। उसने एक बार फिर बापू के चेहरे को देखा। बोलना चाहा लेकिन बोल नहीं पाई। अपना ध्यान बंटाने की गरज से उसने ऊपर देखा। ऊपर नीम के फैले हुए डालों को देखकर लड़की ने सोचा- कहीं यह नीम टूट जाए और वह इसके नीचे दबकर मर जाए। फिर उसे बापू को अपना चेहरा कभी दिखाना नहीं पड़े। वह जीवित रहकर भी क्या करेगी? कैसे दिखाएगी बापू को अपना काला मुंह। उसने मन ही मन कहा- हे भगवान, यह नीम मेरे ऊपर गिरा दे। लेकिन नीम पर भगवान नहीं है। नीम पर खुद उदासी नाच रही है। उसी उदासी का एक पीला-सा घुंघरू उनके बीच आकर गिर जाता है। दोनों अचानक वर्तमान में आकर कुछ क्षणों के लिए उसकी ओर देखते है। दोनों में कातरता कुतर-कुतर कर रही है, इधर बेचैनी ब्याज-सी बढ़ रही है। बूढ़े ने इधर-उधर देखकर अपनी कातरता को दबाया और जेब से चिलम-तम्बाकू निकाल कर पान जचाया। फिर खड़ा होकर अगल-बगल से पांच-सात पत्ते और मुट्ठी भर कचरा चुग कर ले आया। आग जलाकर उसने अंगारों को चिलम में डाल लिया और दम भरकर खींचने लगा। कई देर तक वह सब कुछ भूलकर चिलम के धूंए में जीवन के राग को ढूंढऩे का प्रयास करता रहा। चिलम से बूढ़े के ग्लूकोज-सी चढ़ गई। उसमें ताकत का संचार हुआ। उसने एक-दो बार संतरी की तरफ देखा। बूढ़े के मन में आया कि उससे बात करके देखे। शायद काम बन जाए। लेकिन बात कैसे करें, यदि उसने झिड़क दिया तो। ऐसा सोचते ही बूढ़े की हिम्मत टूट गई। लड़की ने बापू से आंखे बचाकर अपनी झोली में पड़े थैले में देखा। उसकी पीड़ा जाग उठी। सलवार अब भी बदरंग पड़ी है। उसमें लगा हुआ खून अब उस दिन जैसा लाल नहीं, मटमैला हो गया। धरती पर गिरे सूखे चीड़ जैसा। लड़की की सोच साकार होने लगी। आज वह बड़े साब को सलवार दिखाएगी। कहेगी... लेकिन बापू के सामने क्या कहेगी। बड़े साब से कैसे बता पाएगी वह सब, जो उसके साथ हुआ। केवल सलवार दिखाने से ही साब समझ जाएंगे। साब उसे न्याय दिलाएंगे। उस दरिन्दे को पकड़ कर जेल में डाल देंगे। उसे न्याय मिल जाएगा। साब बड़े आदमी हैं। गरीबों की भी सुनेंगे। वे बिकने वाले नहीं है। थानेदार की तरह वे सरपंच की नहीं सुनेंगे। लड़की ने थैले में पड़ी सलवार को हाथ से नीचे छिपाने की सोची, लेकिन बापू के देखने के डर से विचार बदल दिया।
उदासी से घिरा हुआ बूढ़ा कहीं खोया हुआ-सा बैठा है। अचानक उसका ध्यान अपनी धोती की ओर चला जाता है। धोती जगह-जगह से फटी हुई है। फटी धोती को उसने कई जगह गांठ बांध कर जोड़ रखा है। पहनने लायक नहीं रही, लेकिन फिर भी उसने पहन रखी है। धोती से भी बदतर हाल है उसके कुरते का। कुरते की एक बाजू गायब है। बचे हुए कुरते पर ढेर सारे पैबंद लगे हंै। बूढ़ा सोचता है कि साब के सामने इन कपड़ों में जाएगा, तो उनको कितना अटपटा लगेगा। क्या सोचेंगे वे। यह सब देखने से पहले तो उसे मर जाना चाहिए था। उसकी इज्जत पर फटे हुए कपड़ों से क्या फर्क पड़ेगा। जब इज्जत ही फट गई, तो कपड़ों का क्या? पैबंद लगे हुए शरीर को कौन अपनाएगा? कहीं उसकी बेटी कुंवारी तो नहीं रह जाएगी। नीम पर बैठे कौवे की कांव-कांव ने उसकी विचार शृंखला को तोड़ दिया। तभी संतरी की पथरीली आवाज उसके कानों से आ टकरायी -'ओय बूढ़े! आजा डी.एसपी. साब बुला रहे है।Ó
बूढ़ा इसी का इंतजार कर रहा था। उसकी मुराद पूरी हो गई। एकबारगी तो उसे लगा कि उसके अन्दर कहीं चूसे के बच्चे नाच-गा रहे हैं। दिल मे खुशी समा नहीं रही थी। उसने सोचा कि उसे न्याय मिल जाएगा। सब कह डालेगा रो-रोकर। बूढ़े के घुटनों में घोड़े जैसी ताकत आ गई। लड़की ने हाथ का तिनका फेंक कर जमीन पर खींची लकीरों को पांव से मिटाया, थैला सम्भाला तथा बापू के पीछे-पीछे चल पड़ी। चलते हुए उसने एक बार फिर थैले में सरसरी नजर से देखा। सलवार अब भी बदरंग है। गेट में घुसते वक्त संतरी ने फिर उनको घूरा, लेकिन अपनी सोच पर सवार बाप-बेटी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया।
दफ्तर में प्रवेश करते ही बूढ़े ने दण्डवत किया। साब ने उनकों कुर्सियों की ओर बैठने के लिए इशारा किया, लेकिन वे कुर्सियों की बजाय साब के पंावों में नीचे ही बैठ गए।
'हां तो बोलो?'- एक भारी भरकम आवाज बूढ़े के कानों में आ फंसी।
'साब बोलने लायक तो उसने छोड़ा ही नहीं। अब न्याय आपके हाथों में है।'- एक कांपती गुहार बूढ़े के कंठों से निकली।
'बोलो क्या चाहते हो। कहो तो बोरी दो बोरी गेहूं दिलवा दूं। अकाल ठीक से कट जाएगा।'
साब की बात सुनते ही बूढ़े की उम्मीदें आंखों की बाढ़ में बह गई। सारे सपने सफेदे की लकड़ी की तरह टूट गए। पैरों में बर्फ जमने लगी। उठते वक्त वो लकवा मारती जुबान से इतना ही फूट पाया- 'गेहूं और इज्जत में बहुत फर्क होता है साब, कभी वक्त आए, तो लेकर देख लेना।'
लड़की अपनी आशाओं की अर्थी कंधों पर उठाए बापू के पीछे चल पड़ी। वह अब भी उदास थी और सलवार बदरंग। नीम तले गुजरते बूढ़े ने एक बार फिर पीछे मुड़कर देखा। नीम पहले की तरह खड़ा है, जिस पर सुनेड़ अपना लहंगा बिछाए बैठी है- खामोश!

1 टिप्पणी:

सुभाष नीरव ने कहा…

एक सशक्त और बेहद मार्मिक कहानी ! भाषा बहुत सुन्दर और प्रभावकारी है। बस, टंकण की अशुद्धियां खटकती हैं।