शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

नीम न मीठो होय




मूल राजस्थानी कहानी : रामेश्वर गोदारा 'ग्रामीण'
अनुवाद: डॉ. मदनगोपाल लढ़ा

लेकिन बापू के सामने क्या कहेगी। बड़े साब से कैसे बता पाएगी वह सब, जो उसके साथ हुआ। केवल सलवार दिखाने से ही साब समझ जाएंगे। साब उसे न्याय दिलाएंगे। उस दरिन्दे को पकड़ कर जेल में डाल देंगे। उसे न्याय मिल जाएगा। साब बड़े आदमी हैं। गरीबों की भी सुनेंगे। वे बिकने वाले नहीं है। थानेदार की तरह वे सरपंच की नहीं सुनेंगे।


अन्दर बैठे साब ने उनको बाहर बैठकर इंतजार करने के लिए कहा है। अन्दर कोई जरूरी खुसर-फुसर चल रही है। दोनों बाप-बेटी बाहर खड़े नीम तले आकर फ्रीज हो गए हैं। नीम की हरियाली पीलेपन से दबी जा रही है। हवा बंद है। उन दोनों के बीच पसरा हुआ मौन अंगड़ाई तोड़ रहा है। लड़की जवान है। सोलह बरस की। बाप बूढ़ा है। एकदम चरमराया हुआ। बूढ़े के चेहरे पर झुर्रियों का रामराज्य है और इस रामराज्य की बॉडीगार्ड बनी हुई डाढ़ी इधर-उधर मुस्तैद खड़ी है। बूढ़े की गरदन के दोनों तरफ दो पिल्लर जैसी नसें तनी हुई खड़ी हंै। शायद इन पिल्लरों के भरोसे ही बूढ़े का सिर अपनी जगह मौजूद है। इसी सर में कीड़े कुलबुला रहे हैं। ये कीड़े पिछले तीन-चार दिनों से उसे कच-कच काटते चले आ रहे हैं। बूढ़ा जब भी इन कीड़ों को बाहर निकाल फैंकने के लिए सर झटकता है तब कीड़े सांप बनकर उसके भेजे में घूमने लगते हंै। इन सांपों को मारने के लिए बूढ़े के पास कोई साधन नहीं है लेकिन फिर भी वह इनका सामना करने की सोचता है। वे सांप फण तानकर फुंफकारते हैं। उसे बार-बार डसते हंै लेकिन बूढ़ा मरता नहीं। उसे दिल का दौरा नहीं पड़ता। इस जहर से बूढ़े का चेहरा उस मरुस्थल जैसा बन गया, जिसके झाड़-झंखाड़ों को भेड़-बकरियों ने चर लिया हो। बूढ़े की धंसी हुई आंखों में पानी तो है लेकिन सपने पथरा गए है। वे सारे सपने जिनका ताना-बाना बूढ़े ने आज तक बड़े जतन से बुना था अब चदरिया बुनने से कन्नी काट रहे हैं। लड़की सलवार-कुरता पहने सलीके से औकडू बैठी है। बापू के ठीक सामने। उसके हाथ में नीम का तिनका कैद है। वो उसे धरती पर चलाए जा रही है-बेतरतीब। कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें बन रही हैं, मगर कोई चित्र नहीं बन पाता। चित्र तो बेचारी लड़की की कल्पनाओं में भी नहीं है। लड़की एक क्षण के लिए नजर उठाकर बापू की ओर देखती है। बापू कहीं गहरे डूबे हुए है। लड़की सोचती है कि वह बापू के लिए बूढ़ापे की लाठी तो नहीं बन पाई, उलटा उनकों ही लंगड़ा कर डाला। अब वे ज्यादा दिन जी नहीं पाएंगे। यदि वह नहीं होती, तो बापू आधी मौत नहीं मरते। तभी उनके बीच नीम का एक पत्ता आकर गिर जाता है। एक बार दोनों यूं ही उसे देख भर लेते है। पत्ते पर उनकी किस्मत लिखी हुई नहीं है। पत्ते से ध्यान हटते ही दोनों बाप-बेटी फिर एक दूसरे को देखते हैं लेकिन पल भर में ही ध्यान हटा लेते हंै। दोनों की हिम्मत जवाब दे चुकी है। लड़की बापू से आंख नहीं मिला सकी, तो उसने सीधी सड़क पर देखना शुरू कर दिया। दोपहर की तेज धूप में सूनी पड़ी सड़क उसे विकराल काली नागिन-सी लहराती नजर आई। लू से उसे ऐसा लगा, जैसे वह नागिन लोटपोट खाते हुए ऊपर-नीचे होकर सांस ले रही है और इसी तरफ आ रही है। लड़की डर गई। उसे लगा, मानों सड़क उसे निगलना चाहती है। उसने सड़क से ध्यान हटा लिया तथा सामने वाले दरवाजे की ओर देखा। वहां संतरी पहरा लगा रहा था। जबसे वह यहां आई है तब से संतरी उसे ताक रहा है। तंग आकर लड़की ने अपना ध्यान नीम तक ही समेट लिया। नीम के नीचे बापू का उदास चेहरा पड़ा है- भूखे बैल जैसा। वो बापू का चेहरा देर तक नहीं देख पाई। उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। उसे बापू पर दया आ रही है। वो सोचने लगी-वह बापू से बात करेगी। परन्तु क्या? बापू क्या सोच रहा है। वह कब से मुर्दे की तरह बैठा है। उसने एक बार फिर बापू के चेहरे को देखा। बोलना चाहा लेकिन बोल नहीं पाई। अपना ध्यान बंटाने की गरज से उसने ऊपर देखा। ऊपर नीम के फैले हुए डालों को देखकर लड़की ने सोचा- कहीं यह नीम टूट जाए और वह इसके नीचे दबकर मर जाए। फिर उसे बापू को अपना चेहरा कभी दिखाना नहीं पड़े। वह जीवित रहकर भी क्या करेगी? कैसे दिखाएगी बापू को अपना काला मुंह। उसने मन ही मन कहा- हे भगवान, यह नीम मेरे ऊपर गिरा दे। लेकिन नीम पर भगवान नहीं है। नीम पर खुद उदासी नाच रही है। उसी उदासी का एक पीला-सा घुंघरू उनके बीच आकर गिर जाता है। दोनों अचानक वर्तमान में आकर कुछ क्षणों के लिए उसकी ओर देखते है। दोनों में कातरता कुतर-कुतर कर रही है, इधर बेचैनी ब्याज-सी बढ़ रही है। बूढ़े ने इधर-उधर देखकर अपनी कातरता को दबाया और जेब से चिलम-तम्बाकू निकाल कर पान जचाया। फिर खड़ा होकर अगल-बगल से पांच-सात पत्ते और मुट्ठी भर कचरा चुग कर ले आया। आग जलाकर उसने अंगारों को चिलम में डाल लिया और दम भरकर खींचने लगा। कई देर तक वह सब कुछ भूलकर चिलम के धूंए में जीवन के राग को ढूंढऩे का प्रयास करता रहा। चिलम से बूढ़े के ग्लूकोज-सी चढ़ गई। उसमें ताकत का संचार हुआ। उसने एक-दो बार संतरी की तरफ देखा। बूढ़े के मन में आया कि उससे बात करके देखे। शायद काम बन जाए। लेकिन बात कैसे करें, यदि उसने झिड़क दिया तो। ऐसा सोचते ही बूढ़े की हिम्मत टूट गई। लड़की ने बापू से आंखे बचाकर अपनी झोली में पड़े थैले में देखा। उसकी पीड़ा जाग उठी। सलवार अब भी बदरंग पड़ी है। उसमें लगा हुआ खून अब उस दिन जैसा लाल नहीं, मटमैला हो गया। धरती पर गिरे सूखे चीड़ जैसा। लड़की की सोच साकार होने लगी। आज वह बड़े साब को सलवार दिखाएगी। कहेगी... लेकिन बापू के सामने क्या कहेगी। बड़े साब से कैसे बता पाएगी वह सब, जो उसके साथ हुआ। केवल सलवार दिखाने से ही साब समझ जाएंगे। साब उसे न्याय दिलाएंगे। उस दरिन्दे को पकड़ कर जेल में डाल देंगे। उसे न्याय मिल जाएगा। साब बड़े आदमी हैं। गरीबों की भी सुनेंगे। वे बिकने वाले नहीं है। थानेदार की तरह वे सरपंच की नहीं सुनेंगे। लड़की ने थैले में पड़ी सलवार को हाथ से नीचे छिपाने की सोची, लेकिन बापू के देखने के डर से विचार बदल दिया।
उदासी से घिरा हुआ बूढ़ा कहीं खोया हुआ-सा बैठा है। अचानक उसका ध्यान अपनी धोती की ओर चला जाता है। धोती जगह-जगह से फटी हुई है। फटी धोती को उसने कई जगह गांठ बांध कर जोड़ रखा है। पहनने लायक नहीं रही, लेकिन फिर भी उसने पहन रखी है। धोती से भी बदतर हाल है उसके कुरते का। कुरते की एक बाजू गायब है। बचे हुए कुरते पर ढेर सारे पैबंद लगे हंै। बूढ़ा सोचता है कि साब के सामने इन कपड़ों में जाएगा, तो उनको कितना अटपटा लगेगा। क्या सोचेंगे वे। यह सब देखने से पहले तो उसे मर जाना चाहिए था। उसकी इज्जत पर फटे हुए कपड़ों से क्या फर्क पड़ेगा। जब इज्जत ही फट गई, तो कपड़ों का क्या? पैबंद लगे हुए शरीर को कौन अपनाएगा? कहीं उसकी बेटी कुंवारी तो नहीं रह जाएगी। नीम पर बैठे कौवे की कांव-कांव ने उसकी विचार शृंखला को तोड़ दिया। तभी संतरी की पथरीली आवाज उसके कानों से आ टकरायी -'ओय बूढ़े! आजा डी.एसपी. साब बुला रहे है।Ó
बूढ़ा इसी का इंतजार कर रहा था। उसकी मुराद पूरी हो गई। एकबारगी तो उसे लगा कि उसके अन्दर कहीं चूसे के बच्चे नाच-गा रहे हैं। दिल मे खुशी समा नहीं रही थी। उसने सोचा कि उसे न्याय मिल जाएगा। सब कह डालेगा रो-रोकर। बूढ़े के घुटनों में घोड़े जैसी ताकत आ गई। लड़की ने हाथ का तिनका फेंक कर जमीन पर खींची लकीरों को पांव से मिटाया, थैला सम्भाला तथा बापू के पीछे-पीछे चल पड़ी। चलते हुए उसने एक बार फिर थैले में सरसरी नजर से देखा। सलवार अब भी बदरंग है। गेट में घुसते वक्त संतरी ने फिर उनको घूरा, लेकिन अपनी सोच पर सवार बाप-बेटी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया।
दफ्तर में प्रवेश करते ही बूढ़े ने दण्डवत किया। साब ने उनकों कुर्सियों की ओर बैठने के लिए इशारा किया, लेकिन वे कुर्सियों की बजाय साब के पंावों में नीचे ही बैठ गए।
'हां तो बोलो?'- एक भारी भरकम आवाज बूढ़े के कानों में आ फंसी।
'साब बोलने लायक तो उसने छोड़ा ही नहीं। अब न्याय आपके हाथों में है।'- एक कांपती गुहार बूढ़े के कंठों से निकली।
'बोलो क्या चाहते हो। कहो तो बोरी दो बोरी गेहूं दिलवा दूं। अकाल ठीक से कट जाएगा।'
साब की बात सुनते ही बूढ़े की उम्मीदें आंखों की बाढ़ में बह गई। सारे सपने सफेदे की लकड़ी की तरह टूट गए। पैरों में बर्फ जमने लगी। उठते वक्त वो लकवा मारती जुबान से इतना ही फूट पाया- 'गेहूं और इज्जत में बहुत फर्क होता है साब, कभी वक्त आए, तो लेकर देख लेना।'
लड़की अपनी आशाओं की अर्थी कंधों पर उठाए बापू के पीछे चल पड़ी। वह अब भी उदास थी और सलवार बदरंग। नीम तले गुजरते बूढ़े ने एक बार फिर पीछे मुड़कर देखा। नीम पहले की तरह खड़ा है, जिस पर सुनेड़ अपना लहंगा बिछाए बैठी है- खामोश!

बुधवार, 22 जुलाई 2009

संस्कर्ता का साहित्य ग्राम्य जीवन का भरोसे मन्द दस्तावेज-

महाजन
२१ जुलाई राजस्थान भाषा साहित्य एंव अकादमी तथा कालू विकास मंच की ओर मंगलवार को कालू के ओसवाल भवन में ख्यातनाम साहित्य कार नानूराम संस्कर्ता की जयंती समारेह पूर्वक मनाई गई। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति के प्रदेशाध्यक्ष हरिमोहन सारस्वत ने कहा कि नानूराम संस्कर्ता ग्राम्य जीवन के कुशल चितेरे थे। उनका साहित्य ग्रामीण जीवन की आकांक्षाओं व अवरोधों का प्रमाणिक दस्तावेज है। विशिष्ट अतिथि शिक्षाविद् मोटाराम चौधरी ने कहा कि संस्कर्ता के अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशित करने की महत्ती आवश्यकता है ताकि शोद्यार्थी उनके सम्पूर्ण रचना संसार से परिचित हो सके। इस अवसर पर नानूराम संस्कर्ता के हिन्दी लेखन पर डॉ. मदनगोपाल लढा, राजलस्थानी काव्य पर किशनलाल पुरोहित, कथा साहित्य पर कमलकिशोर पिपलवा व व्यक्तित्व व कृतित्व पर रामजीलाल घोड़ेला ने पत्र वाचन किया। वरिष्ठ पत्रकार करनीदानसिंह राजपूत ने नानूराम संस्कर्ता के नाम पर राजस्थानी अकादमी से प्रतिवर्ष पुरस्कार शुरू करने की मांग की। कथाकार मनोज कुमार स्वामी ने राजस्थानी की संवेधानिक मान्यता को संस्कर्ता का अधूरा सपना बताते हुए उसे पूर्ण करने का आहवान किया। कार्यक्रम में पंचायत समिति सदस्य गोपाल चन्द ढुढाणी, पूर्व सरपंच दुर्गाराम शर्मा, डी. आर. खीची, राजूराम शर्मा आदि ने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए पूव्र सरपंच इन्द्रचन्द राठी ने नानूराम संस्कर्ता के साथ अपने संस्मरण सुनाए। इससे पूर्व कार्यक्रम की शुरूआत नानूराम संस्कर्ता के चित्र के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन से हुई। मंच संचालन करते हुए कमल किशोर ने संस्कर्ता की सुप्रसिद्ध रचना कळायण के दोहो का सस्वर वाचन किया। इस अवसर पर बड़ी संख्या में शिक्षक, साहित्यकार व ग्रामीण उपस्थित थे।

शनिवार, 18 जुलाई 2009

डॉ मदनगोपाल लढा की राजस्थानी कहानी


एक सपने की मौत


अनुवाद - राजू राम बिजारनिया 'राज'

चित्र कृति -पिकासो

दिसम्बर का महीना। रेतीली जमीन पर ठण्ड कड़ाकेदार ही पड़ती है। ठंडी हवाओं से हड्डियां तक कांपने लगती है। रजाई-पथरने में भी दांत बजने लगते हैं, तो बाहर निकलने पर खून जमने की नौबत आ जाती है। ऐसे मौसम की एक भोर में भंवर ने उठकर घड़ी देखी-चार बजने में दस मिनट बाकी। रजाई से मुंह बाहर निकालते ही धूजनी (कंपकंपी)छूटने लगी। आज तो कोहरा भी पड़ा लगता है! भंवर ने मंजु की ओर देखा जो उसके बांई तरफ बेफिक्र हो सो रही थी। उठना तो पड़ेगा, नहीं तो देर हो जाएगी। रजाई फेंककर वह खड़ा हो गया। हॉकर की जिंदगी में भला ठाठ की नींद कहां? मन मारकर वह तैयार होने लगा। मंजु को नींद से जगाना उसे अच्छा नहीं लगा। चाय भी उसने खुद बनाई। अलसुबह कैसी मीठी नींद आती है, उससे अधिक कौन जानता है उस सुख को।

चाय को हलक से उतारकर उसने साइकिल सम्भाली। घर से निकलते-निकलते पांच बज गए। सामने की हवा और साइकिल की सवारी। गरम बनियान और पुराना स्वेटर सर्द हवा को झेल नहीं सके। किट-किट बजने लगे उसके दांत। गरम चाय का तो कुछ पता ही नहीं चला। 'ठण्ड का काम कसूता...Ó भंवर ने जर्दे की पीक थूकी और एक भद्दी गाली सर्दी के नाम उछाल दी। अब तक तो हरदेव, परमेश्वर और महबूब पहुंच गए होंगे। क्या पता गाड़ी आ गई हो और वे अपने बण्डल लेकर निकल भी गए हों। खुद की देरी से ज्यादा उनके जल्दी आने की फिक्र हुई भंवर को। इन दिनों हॉकरों में अखबार जल्दी बांटने की होड़ लगी थी। चुनावी रेलमपेल में बीस-तीस अखबार खुले भी बिक जाते हैं। श्रवण न्यूज एजेंसी के दफ्तर के आगे इस वक्त सात-आठ हॉकर टायर जलाकर सर्दी भगाने की जुगत कर रहे थे। अपने साथियों को बैठे देखकर भंवर के जी में जी आया। बीड़ी के धुंए और साथियों के साथ बातचीत के बीच वो थोड़ी देर के लिए ठण्ड को भूल गया।

पों-पों........गाड़ी का होर्न बजते ही सभी हॉकर खड़े हो गये। एजेंसी के आगे अखबार के बण्डलों का ढेर लग गया। भंवर ने भी अपना बण्डल साइकिल के पीछे बांधा और चल पड़ा। ठण्ड से हाथ अकड़ गए। साइकिल का हैण्डल सम्भालना मुश्किल हो गया। भंवर को हाथ के दस्तानों की जरूरत महसूस हुई। पिछली बार भी उसने चमड़े के दस्ताने लाने की सोची थी, लेकिन बात बनी नहीं। अखबारों से दाल-रोटी भी मुश्किल से निकल पाते हैं। उस पर कोई विवाह आदि आ जाए तो पैर ऊपर होकर ही पीछा छूटे। पिछली आखातीज भानजी का विवाह हुआ तो उसने कर्ज लेकर मायरा भरा। घर में तो रूखी-सूखी खाकर भी चल जाए पर लोगों में तो इज्जत बनाकर रखनी ही पड़ती है। पैडल के साथ उसके मन में विचारों का पहिया भी चल रहा था। एक बरस से मंजु मोबाइल के लिए कहती आ रही है। देर-सवेर हो जाए तो घण्टी करके खबर की जा सकती है। साधन आ जाए तो भाई-मित्रों के भी सुख हो जाए। जिसे देखो वही कान के लगाकर घूमता नजर आता है। इस बार भंवर ने भी तय कर लिया है। मकर संक्रान्ति से पहले मंजु के हाथ में मोबाइल पक्का ही देगा। इस खयाल से ही भंवर का मन प्रसन्न हो गया।

अब भंवर जवाहर नगर जा पहुंचा। यहां के अधिकतर वाशिंदे उसके नियमित ग्राहक हैं। वह फुर्ती से अखबार निकालता और इस तरह से फेंकता कि अखबार सीधे ग्राहक के बरामदे में पहुंच जाता। सात बजे से पहले उसने सभी ग्राहकों के घर अखबार पहुंचा दिए और बचे अखबार लेकर गांधी चौक की ओर रवाना हो गया।गांधी चौक शहर का व्यस्ततम इलाका है। यहां चौराहे के ठीक बीच में हाथ में लाठी लेकर खड़े है गांधी बाबा॥! ऐसा लगता है जैसे सारे शहर की रखवाली कर रहे हों। चौक चुनावी पोस्टरों से अटा हुआ था। निजी वाहनों का अड्डा होने से चौक पर खासा भीड़ रहती है। भंवर ने यहां एक रेहड़ी किराये पर ले रखी थी जिस पर अखबार रखकर वह ग्राहकों का इंतजार करता है। चुनावी खबरों से रंगे अखबारों में से 'आरक्षण आंदोलन में दस की जान गईÓ हैडिंग को ढ़ूंढ़ा भंवर ने और उसे जोर-जोर से बोलकर अखबार बेचने के जुगाड़ में लग गया।

इसी ठण्ड का एक दूसरा दिन। सदा की भांति अखबार बांटकर भंवर गांधी चौक पहुंचा और रेहड़ी पर अखबार जमा लिए। आज उसके चेहरे पर चमक थी। मंजु के साथ आज ही के दिन तो विवाह हुआ था उसका। एकदम बावली है मंजु। खाया-पीया भी याद नहीं रहता उसे। शाम को वह मंजु के हाथ में मोबाइल थमाएगा और 'हैप्पी एनीवर्सरीÓ कहकर 'सरप्राइजÓ देगा। वह कोई अनपढ़-गंवार थोड़े ही है। अखबार बांटना तो मजबूरी है, नहीं तो दसवीं पास तो राज में भी बाबू लग सकता है। भंवर मन ही मन मुस्कराया और जेब से चमकता मोबाइल निकालकर निहारने लगा। अखबार बांटकर आते वक्त उसने दुकान से तीन हजार रुपये में नया रंगीन मोबाइल खरीद लिया था। मन की खुशी उसके चेहरे पर मुस्कान बनकर पसर गई।उसी वक्त जोरदार शोर-शराबे से भंवर के विचारों में विघ्न पड़ गया। नारे लगाती भीड़ चौक की ओर आ रही थी। भीड़ में कई जनों ने बैनर थाम रखे थे, जिन पर मोटे-मोटे अक्षरों में मांगें लिखी हुई थी। इस शोरगुल से भंवर का कलेजा बैठ गया। एक बरस पहले भी नहर में पानी की कमी के खिलाफ आंदोलन हुआ जिसमें शहर को काफी नुकसान झेलना पड़ा था। हिंसा पर उतारू भीड़ ने तीन बसें जला दी तो पुलिस फायरिंग में तीन लोगों की जान गई। दस दिनों तक कफ्र्यू रहा। भंवर जैसे सैंकड़ो लोगों के घर भूखों मरने की नौबत आ गई। उसका मन आशंका से कांप उठा। 'क्या हुआ॥?Ó भंवर का सवाल हवा में ही टंगकर रह गया। चौराहे पर भीड़ और पुलिस आमने-सामने हो गई। आंदोलनकारी जब राजमार्ग रोकने का प्रयास करने लगे तो पुलिस लाठी चार्ज पर उतर आई। चौक पर भगदड़ मच गई। एक क्षण में दुकानों के शटर गिर हो गए। भंवर ने भी रेहड़ी से अखबार समेटने शुरू किए पर.............! भीड़ ने सारा मसला चौक पर ही निपटा दिया। भंवर की रेहड़ी जमीन पर औंधी पड़ी धुक रही थी, जिसका महज एक पहिया साबुत बचा था। अखबारों के टुकड़े फर्र..फर्र.. करते हवा के साथ इधर-उधर उड़ रहे थे। जमीन पर निढ़ाल पड़ा भंवर अपनी जमा पूंजी खोकर सूनी आंखों से आसमान की ओर ताक रहा था। मंजु के सपनों के मोबाइल की किरंचें चौक पर बिखरी पड़ी थी।चौक की दशा यहां कुछ देर पहले छिड़े महाभारत की प्रत्यक्ष कहानी बयान कर रही थी तो इस समूचे ताण्डव के प्रत्यक्षदर्शी गांधी बाबा हाथ में लाठी लिए चौक के एकदम बीच बिल्कुल मौन खड़े थे।

रविवार, 3 मई 2009

राजस्थानी कहानी




बम


- कमल किशोर पिंपलवा


अनुवाद- डा. मदन गोपाल लढ़ा


मेरी नींद उड़ गई। एक गहरा पछतावा सर उठाकर मुझे सताने लगा। मैंने फिर सोने की कोशिश की लेकिन सारे जतन नकारा साबित हुए। मैंने करवट बदली और आंसुओं से भीगी आंखों के कोरो को साफ करना चाहा। इसी वक्त एक जोरदार धमाका हुआ। मैंने सोचा कि कोई बावरी हिरण मार रहा होगा। लेकिन आह...। मैंने खड़े होकर पानी की एक घूंट गले में डाली लेकिन जलन नहीं मिटी।अचानक फिर एक जोरदार धमाका हुआ।रामूड़े की टपली उड़ गई। सतीये का कोठा जल गया। चारों तरफ तेज रोशनी हुई। ऐसा लगा जैसे गुवाड़ के बीच सूरज ऊग आया हो। ढोर-डांगर भागने लगे लेकिन बेचारे अपने प्राण पंखेरू बम देवता को सौंप कर हड्डियों के ढेर में बदल गए। चिमना गाय दुह रहा था लेकिन बछड़ों को शायद ही छोड़ पाया होगा। मेरी सांसे भी भारी हो गई। जी मिचलाने लगा। एक भंयकर गर्जना सुनाई दी। कुŸो भौकने लगे। मोर तो चुप रहने का नाम ही नहीं ले रहे थे। हंसिये के खिलौने टूट गए। खिलौनों से पहले वह भी ढ़ह गया। मिट्टी का मनुष्य ढे़र हो गया। पीथिया किसी को भी अपने खिलौनों के हाथ नहीं लगाने देता था। लेकिन आज जरा भी नहीं रोया। रेंवत दादा चिलम पीते हुए ही चल बसा। “ मुझे समझ में नहीं आता आदमी इतना वहशी क्यों हो जाता है।”“ खैर ....... यह तो विज्ञान का आविष्कार है।”“ आदमी बुद्धिजीवी हो गया है। इसी कारण उसने ऐसे आविष्कार किये हंै”“ क्या मिलता है उसे इस खून-खराबे में ?”“ मैं पूछता हूँ मिलता क्या है ?” लेकिन इस जगह तो मैं अकेला ही हूँ।मेरे सवालों का जवाब कौन देता। आदमी तो आदमी का दुश्मन हो गया है।उठने की जरा भी हिम्मत नहीं बची है। केवल सोचना ही बस में है। शरीर का अंग-2 टूट रहा है। हड्डियों में दर्द है।चारों ओर लाशों के ढे़र दिखाई दे रहे है। दिल दहलाने वाली कराहटें सुनाई दे रही है। मैंने एक लम्बी सांस ली। शरीर पर पसीने की धारा बहने लगी।“ठीक गांव के गुवाड़ के बीच में बम गिराया है दुश्मनों नें। दुश्मनी थी तो सरकार से, हमसे क्या चाहते थे। मैं पूछता हूँ आखिर आदमी आदमी का बैरी क्यों हो रहा है। मैंने क्या गुनाह किया था जो मुझे यह सजा मिली। मंैने उठने की कोशिश की लेकिन दर्द ने खड़ा नहीं होने दिया। फिर उसी जगह गिर पड़ा।“ मेरे मां और बापू कहां है ? परŸिाया कहां है ? परŸिाये की मम्मी कहां गई ? अर्द्धचेतना में मुझे उनकी याद आने लगी।“ मां ........ओ मां..........?”“...................................““ शायद वे दोनों भी मिट्टी में ही एकाकार हेा गये........।नहीं....नहीं। ऐसा नहीं हो सकता। मेरी मां मुझे छोड़कर नहीं जा सकती । यह झूठ है। एक सपना है। नहीं-नहीं सपना तो नहीं है। लूंगी की गांठ ठीक कर लूं और चलकर मां को ढूढूँ। मां मुझे ढूंढ़ रही होगी। आज मंैने चाय भी नहीं पी। मां चाय बनाएगी। मां ने मुझे चाय के लिए आवाज तो नहीं दी। आज तो वह भी नहीं दिख रही और न ही परŸिाया। सब कहां चले गये ?“ सोच फिल्म की भांति आखों के सामने चलने लगी। “ हे भगवान ! एक बार मुझे मेरी मां से मिला दे। तुम तो बड़े दयालु हो। दीन-दुखियों की सुनने वाले हो। तुमने ही तो शबरी के बेर चखे थे। मुझंे भी संभाल दीनानाथ !” करूणा से आंखे भर गई। हाथ अपने आप आकाश की ओर जुड़ गए और बिना शब्दों के मौन प्रार्थना हाने लगी। आंखे जल रही है। शरीर में दाह भी लगी है। चारों तरफ दुर्गन्ध आ रही है। आंखों में कुछ रड़क रहा है। दाढ़ी में खाज आ रही है। मन का बोझ लेकर मैं फिर पीछे मुड़ा। “ इस बार मैं खड़ा हो जाऊंगा। लेकिन शरीर में थोड़ी भी ताकत नहीं है। हां-हां खड़ा हो जाऊंगा.........।” लेकिन फिर गिर पड़ा। आकाश में काले धुंए के बादल नजर आ रहे है। सूरज भगवान भी धरती पर ऐसा तमाशा देखकर कहीं छिप गए है तभी तो चारों तरफ अंधकार पसर गया। कौन जाने रामजी क्या करेंगे। हँ ? ....... कंठ सूख रहे है। तेज प्यास लगी है। अब क्या करूं। यहां पानी कहां है! मैं गुवाड़ के बीच में अकेला पड़ा हूँ। शेखर, कालू, हरखल , रामजी, श्यामा सब निढ़ाल पड़े है। थोड़ी देर आंखों के आगे अंधेरा आ गया और चेतना खोती महसूस हुई। फिर संभला तो आंखों से गंगा-यमुना बहने लगी। अंतस की करूणा का समुद्र हिलोरे भरने लगा और हिचकिया लम्बी से लम्बी होने लगी। काला धुंआ सांस के साथ पेट में जाने लगा। मैंने दूसरी तरफ करवट बदली लेकिन फिर भी धुंए से पीछा नहीं छूटा। न्याय के के लिए सबसे बड़े हाकिम से अरदास करने लगा लेकिन मेरी अरदास बम के भार तले दब गई। मैंने गरदन उठा कर जेवाले गांव की तरफ देखा जिस पर मै पड़ा था । मातृभूमि के विनाश को देखकर भी मेरा मन रोने के अलावा कुछ नहीं कर सका। हे भगवान! धरती माता के लिए मैं ठीक से रो भी नहीं सका। धरती के लिए मेरे मन में हेत जग गया। शक्तिहीन हाथों से झुक कर मैंने मिट्टी का टीका माथे पर लगा लिया। इस टीके से मुझे सुकून मिला। मैंने आंखें खोली। धुंआ मेरी जान का दुश्मन बन रहा था। धुंए के कारण मेरे शरीर में शूलें चुभने लगीं। अंग-अंग जलने लगा। आंखों की जलन असहनीय हो गई। मैंने आंखे बन्द करनी चाही लेकिन पार नहीं पड़ी। मैंने फिर करवट बदलने की कोशिश की लेकिन हिला भी नहीं गया। मैंने गर्दन जमीन पर टिका दी। धुंए ने हवा को अपनी गिरफ्त में ले लिया। धुंआ, गर्मी, जलन और प्यास। मैंने दूसरी तरफ देखना चाहा। कुछ भी तो नहीं दिखा। धरती घूमने लगी। हवेली, झौपड़ी, तालाब, खड्डा.........। मेरी आंखों के सामने धमाके के सारे दृश्य फिर घूमने लगे।

रविवार, 23 नवंबर 2008

राजस्थानी कहानी




हरी बत्ती - लाल बत्ती
- मेहर चन्द धामू


अनुवाद- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा
अड्डे पर बस क रुकते ही उसमें से चार-पांच जने उतरे तो कई चढ़े भी। बस अड्डे पर रौनक कुछ कम हो गई परन्तु अब भी 15-20 लोग मौजूद थे। कुछ दुकान व ढ़ाबे वाले तो कुछ आने वाली बस के इन्तजार में खड़े थे। कुछ बातों और मौज-मस्ती के लिए भी वहां उपस्थित थे। बस से दो यात्री उतरे, जो पुलिस की भाषा में संदिग्ध से लगते थे और ग्रामीण नजरों में सामान्य से लगते थे। बस से उतरते ही उनकी भाषा से लगा कि वे किसी परेषानी में है।रुप ने अपने साले से कहा -Þकाफी बड़ा गांव है, पूछना पड़ेगा।ßÞपूछने में कौन से पैसे लगते हैं। घर जल्दी मिल जाएगा और सामने वाले की योग्यता और व्यवहार का पता भी लग जाएगा। जितनी जानकारी उतनी ही काबिलियत। एक तीर से दो षिकार। परख मुफ्त में हो जाएगी।ßअड्डे का जायजा लेकर उन्होंने एक भले से दिखने वाले आदमी पर नजरें जमाई। रुप ने कहा- Þ राम-राम सा।ßराम-रम्मी का यहां राम से कोई लेना-देना नहीं है। अनजान व्यक्ति से बात षुरु करने और उसका चेहरा देखने का यह एक बहाना मात्र होता है। वह व्यक्ति रुप की मंषा जान गया। मुस्कराते हुए तपाक से बोला- Þराम ही राम सा ! फरमाईए।ßÞजी ! हमे बेगराज चोटिया के घर जाना है। घर नहीं जानते।ßÞओह , बेगराज चोटिया के यहां।Þ उन दोनों को ऊपर से नीचे तक देखते हुए वह फिर बोला- Þघर काफी दूर है। समूचा गांव चीरना पड़ेगा। रास्ते में कई गली व मोड़ आएगे। ßइधर-उधर देखते हुए- Þयहां से कोई उस तरफ जाता हुआ भी नहीं दिखता, सुविधा हो जाती। ख्ौर ! आप ऐसा करें, यह गली पकड़ लें।ß अंगुली से इषारा करते हुए उसने बताया- Þजहां आपको कोई षंकां हो वहां पूछ लेना। पूछने में कोई लगान नहीं लगता। अच्छा सा, मेरी बस आ गई। आप भी रास्ते पर चल पड़िए।मरब्बा भर चले होंगे। गली चौराहा बन गई। नुक्कड़ की दुकान पर दुकानदार से पूछना पड़ा। दुकानदार ने कहा - Þघर तो बहुत दूर है।ß दुकानदार ने इधर-उधर देखा और आवाज दी- Þअरे पप्पू ! इधर तो आ।ß आठ -दस साल का एक लड़का पास आ कर बोला- Þक्या कह रहे हो ?ß इन मेहमानों को बेगराज भाई साहब के घर छोड़ आ। अकेलों को परेषानी होगी।ßÞमैं तो घर ही नहीं जानताßÞघर मैं बताऊ¡ÞÞरहने दो, क्यों बेचारे बच्चे को तंग कर रहे हो।Þ रुप ने टोका।Þइसमें क्या तंग होना ? बच्चे का मन बहल जाएगा और आपका काम बन जाएगा।Þखेलने दीजिए, बच्चा है। हम आगे और पूछ लेंगे। यहीं से रास्ता बता दीजिए।थोड़ा और चले। चौराहा तो नहीं चौगान आ गया। फिर मुसीबत खड़ी हो गई। इधर उधर देखा।सामने चबूतरे पर एक जवान बैठा था। करीब जा कर पूछा तो वह बोला- Þओ हो तो आपको बेगराज ताऊ के घर जाना है ?ÞÞहां सा !ßÞ आइए बैठिए , मैं पानी लेकर आता हूं। पानी पीजिए तब तक मेरी मां नोहरे से आ जाएगी और मैं खुद आपको ताऊजी के घर पहुंचा दूंगा।Þनहीं-नहीं ... इतनी तकलीफ मत कीजिए। हम चलें जाएंगे। आप केवल रास्ता बता दीजिए।ÞÞघर बहुत दूर है। आप भटक जाए¡गे। पांच मिनट की तो बात है। मां आती ही होंगी।ßÞरहने दीजिए, क्यों परेषान होते है। हम बच्चे थोड़े ही है। केवल रास्ता बता दीजिए, बहुत होगा।Þ खूब मिन्नत करने पर ही उसने पीछा छोड़ा और रास्ता बताया।अड्डे से चौराहा और चौगान जितनी दूर फिर चलें होंगे कि गुवाड़ आ गया। सामने दो रास्ते। फिर पूछना जरूरी हो गया। गुवाड़ में भी सूनापन दिखा। कोई बच्चा या बड़ा नजर नहीं आया। एक घर के दरवाजे से सटी बैठक खुली थी। निकट पहुंचे । बैठक में कुछ लोग ताष खेल रहे थे। एक व्यक्ति जो घर का मुखिया लग रहा था, उससे पूछा। उत्तर मिला - Þआइए-आइए, बैठिए। हुक्का पीजिए।ßÞजी हमें केवल यह बता दें कि कौनसी गली जाएगी।ßÞपहले बैठिए तो सही। गली नहीं, घर बताएंगे। बताएंगे ही नहीं पहुंचा कर आएंगे।Þजी केवल गली बता दीजिए।ßÞआपकी मजीZ। अरे ओ अजिया, इन मेहमानों को तुम्हारे चाचा चोटिया सा के घर पहुंचा आ। और सुन, तुम्हारे ताऊजी घर पर नहीं हो तो मेहमानों चाय-पानी पिलाने की जिम्मेदारी भी तुम्हारी है।ßआदेष सुनते ही लड़का साथ चल पड़ा।घर पहुंचे। बेगराम जी घर पर मिले अर खूब आदर सत्कार किया। रात भर रुके। जमकर सेवा चाकरी हुई। मान-मनवार भी भरपूर। कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी। सुबह इजाजत मांगी।तड़के पानी की बारी भी। दोनों बेटो को खेत भेज दिया। मेहमानों को खेत देखने का न्यौता दिया। मेहमानों को रवाना होने की जल्दी थी। उधर पानी लगाने का वक्त हो रहा था। बेगराज बोला-Þमैं पानी लगा दूंगा और आप खेत देख लेना। लौटते हुए आपको बस तक छोड़ दूंगा।ßÞआप नििष्ंचत होकर पानी लगाइए। हमारी चिन्ता मत कीजिए। हम बच्चे नहीं हैं। अड्डे पहुंच जाएंगे। पानी की बारी लम्बे इन्तजार के बाद आती है इसलिए बहुत जरूरी है।ß रुप ने समझाया।बेगराज खेत की तरफ और मेहमान बस अड्डे की ओर चल पड़े।बेगराज आषंकित था। वो मेहमानों को अकेला नहीं छोड़ना चाहता था। उसके दोनों बेटे विवाह लायक थे। कहीं से भी रिष्ते नहीं मिल रहे थे। जैसे दिन गुजर रहे थे वैसे बात कठिन हो रही थी। वहीं मुिष्कल से ये मेहमान आए है। कोई इनको बीच में बिदका न दे। वह सावधानी बरतना चाहता था परन्तु मेहमानों की जिद के सामने उसे झुकना पड़ा।म्ेहमानों को भी अब धीरज नहीं था। आपस मेें बात करने के लिए उनका पेट फूल रहा था। वे भी मौका देख रहे थे। अकेलापन पाते ही किषन ने पूछा- Þयह रिष्ता किसने बताया ? घर -बार तो ठीक लगा।ßÞचाहे कोई बताए लेकिन मुझे पसन्द आ गया। और तुम्हे !ßÞपसन्द तो आना ही है। वैभव की बात दीवारें कह देती है। कितना बड़ा गांव है और कोई द्वेषी नहीं। सब हितैषी ही हितैषी। आदमी सुलझा हुआ लगता है। गांव में अच्छी इज्जत है। जो भी मिला वो मान-सम्मान के लिए आतुर है। इतने आदर व मनुहार के लिए भला किसके पास वक्त है। दुनियां देखी है। सब लोग बचते फिरते है। और यहां बेगराज का नाम सुनत ही सामने वाले के घुंघरू बंध जाते है। खुद तकलीफ उठा कर दूसरे का काम साधना यूं ही तो नहीं होता। आदमी काबिल है और लड़के भी सुन्दर व समझदार है।सुनी-परखी और आंखों देखी में तो कहीं भी कमी नहीं दिखती। आगे बेटियों का भाग...।Þरुप बोला-Þयह तो सब ठीक है पर हम बेगराज के पसन्द आएंगे कि नहीं, क्या पता।ß बातों ही बातों में गुवाड़ आ गया। आते वक्त हुक्का पीने की मनुहार करने वाला हुक्का भरे तैयार बैठा था। बोल पड़ा- Þबेगराज घर पर मिला कि नहीं ?ßÞहां सा।ß किषन ने बताया।Þमिलनें को तो वो जाता कहां है। घर तो छोड़ता ही नहीं और छोड़े भी कैसे ? बिचारे की मजबूरी है घरमें औरत का राज है। वो कहे वैसे ही पांव धरना पड़ता है।ß बेषमीZ की हंसी के साथ वह बोलत गया-Þ आइये, अब तो हुक्का पी लीजिए।अब क्या जल्दी है ?ßजल्दी तो है ही ß रुप ने कहा।Þजीतेजी ऐसा ही होगा। आइये, दो मिनट बैठिए। ज्यादा जल्दबाजी भी ठीक नहीं होती । सोच विचार कर काम करना ठीक होता है।ßगुवाड़ वाला दोस्त थोड़े में ही बहुत कुछ कह गया। दोनों में मन मे षक के कीड़े जग गए- उसकी घरवाली को तो परखा ही नहीं। सासू तो मिट्टी की ही खराब होती है। घर में जब औरत की चलती है और वहीं अच्छी नहीं हो तो लड़की के लिए मुसीबत ।यहां से पीछा छुड़ा कर आगे बढ़े तो चौगान वाला जवान तैयार खड़ा था। देखते ही बड़बड़ाने लगा-Þरात तो फिर दारु के जाम टकराए होंगे। ना-ना दारु तो वहां कहां होगा। वो तो लोगो की ही पीना जानता है। दूसरों की जेब से ही मदमस्त बनता है। ख्ौर जाने दो। आपको कहां होगा, मैं पीता ही नहीं। झूठ बोलने में बड़ा माहिर है। घर ठीक से पहुंच गए थे ना ?ßदूसरा कीड़ा कुलबुुलाया- दारुखोर के तो दषZन ही खोटे।उस जवान की बात अभी कानों में गूंज ही रही थी कि चौराहा आ गया और उनको देखकर दुकानदार भी बजने लगा। Þदुकानदारी का धंधा । ग्राहक के हिसाब से देखे तो वक्त और जुबान का बिलकुल ही कच्चा है। बातों में न आ जाना वरना तंग होना पड़ेगा।ßकानों में अंगुली तो नहीं दी जा सकती इसीलिए ये बातें भी सुननी पड़ी। रुप के मन मे ं बेगराज के घर जाते वक्त जो विष्वास जगा था वह बस अड्डे तक पहुंचते पहुंचते बिलकुल मिट गया। घर जाते वक्त जो भी मिला उसने हरी बत्ती दिखाई और आते वक्त सबने लाल। जाते समय सब बेगराज को गुणों की खान बता रहे थे और वापसी के इषारे उसके गुणों के कपासिये उड़ा रहेे थे।ऐसी हालत में खुद की बेटी का रिष्ता करना तो दूर दुष्मन को बताना भी पाप लगता है। दोनों मायूस चेहरे लिए बस का इन्तजार कर रहे थे और किषन अपने विचार बता रहा था। रुप का ध्यान किषन पर नहीं था। वह इस घटना पर गहराई से मंथन कर रहा था। सड़क होगी तो सिग्नल होगा ही। हरी बत्ती तो षुभ संकेत है। धीमे-धीमे आगे बढ़ो। लाल बत्ती खतरे का संकेत होती है। हरी पर लाल भारी है। लेकिन अब बारी..........।


Þबस आ गई ß किषन ने कहा।

सोमवार, 14 जुलाई 2008

कैक्टस में हाथ



अब नहीं उगते कैक्टस में हाथ
बचपन में मना करती थी
कहा करती थी माँ -
'मत मार बहन को
पाप लगेगा रे, पाप
देख, वह देख
वो काँटों वाला कैक्टस
उगा करत हैं उस में
पापी हाथ'
बच्चे डरते थे तब
लेकिन अब?
अब तो डरता नहीं कोई भी
हाँ,
उगते थे कभी, लेकिन
अब नहीं उगते कैक्टस में हाथ


मूलः जुगल परिहार
अनुवादः नीरज दइया

मंगलवार, 27 मई 2008

मालचंद तिवाडी की कविता



अंतिम दिन यह दुनिया

कविता होगी
अंतिम वृक्ष
प्रीत के मरुस्थलों
निपजेगी केवल प्रीत
चिड़िया लेगी फिर विश्राम
वृक्षों की रेशमी छाँव में ।

पहले दिन की तरह
अंतिम दिन यह दुनिया-
फिर से तेरी मेरी होगी ।



अनुवाद- नीरज दइया


(माल चंद तिवाडी राजस्थानी कवियों की युवतर पीढी के सबसे सम्मानित,महत्वपूर्ण और विख्यात प्रतिनिधि हैं ,कहानियाँ भी उसी धार और प्रवाह से लिखते हैं ,बीकानेर में रिहायश वैसे उपस्थिति ग्लोबल .)