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एक सपने की मौत
अनुवाद - राजू राम बिजारनिया 'राज'
चित्र कृति -पिकासो
दिसम्बर का महीना। रेतीली जमीन पर ठण्ड कड़ाकेदार ही पड़ती है। ठंडी हवाओं से हड्डियां तक कांपने लगती है। रजाई-पथरने में भी दांत बजने लगते हैं, तो बाहर निकलने पर खून जमने की नौबत आ जाती है। ऐसे मौसम की एक भोर में भंवर ने उठकर घड़ी देखी-चार बजने में दस मिनट बाकी। रजाई से मुंह बाहर निकालते ही धूजनी (कंपकंपी)छूटने लगी। आज तो कोहरा भी पड़ा लगता है! भंवर ने मंजु की ओर देखा जो उसके बांई तरफ बेफिक्र हो सो रही थी। उठना तो पड़ेगा, नहीं तो देर हो जाएगी। रजाई फेंककर वह खड़ा हो गया। हॉकर की जिंदगी में भला ठाठ की नींद कहां? मन मारकर वह तैयार होने लगा। मंजु को नींद से जगाना उसे अच्छा नहीं लगा। चाय भी उसने खुद बनाई। अलसुबह कैसी मीठी नींद आती है, उससे अधिक कौन जानता है उस सुख को।
चाय को हलक से उतारकर उसने साइकिल सम्भाली। घर से निकलते-निकलते पांच बज गए। सामने की हवा और साइकिल की सवारी। गरम बनियान और पुराना स्वेटर सर्द हवा को झेल नहीं सके। किट-किट बजने लगे उसके दांत। गरम चाय का तो कुछ पता ही नहीं चला। 'ठण्ड का काम कसूता...Ó भंवर ने जर्दे की पीक थूकी और एक भद्दी गाली सर्दी के नाम उछाल दी। अब तक तो हरदेव, परमेश्वर और महबूब पहुंच गए होंगे। क्या पता गाड़ी आ गई हो और वे अपने बण्डल लेकर निकल भी गए हों। खुद की देरी से ज्यादा उनके जल्दी आने की फिक्र हुई भंवर को। इन दिनों हॉकरों में अखबार जल्दी बांटने की होड़ लगी थी। चुनावी रेलमपेल में बीस-तीस अखबार खुले भी बिक जाते हैं। श्रवण न्यूज एजेंसी के दफ्तर के आगे इस वक्त सात-आठ हॉकर टायर जलाकर सर्दी भगाने की जुगत कर रहे थे। अपने साथियों को बैठे देखकर भंवर के जी में जी आया। बीड़ी के धुंए और साथियों के साथ बातचीत के बीच वो थोड़ी देर के लिए ठण्ड को भूल गया।
पों-पों........गाड़ी का होर्न बजते ही सभी हॉकर खड़े हो गये। एजेंसी के आगे अखबार के बण्डलों का ढेर लग गया। भंवर ने भी अपना बण्डल साइकिल के पीछे बांधा और चल पड़ा। ठण्ड से हाथ अकड़ गए। साइकिल का हैण्डल सम्भालना मुश्किल हो गया। भंवर को हाथ के दस्तानों की जरूरत महसूस हुई। पिछली बार भी उसने चमड़े के दस्ताने लाने की सोची थी, लेकिन बात बनी नहीं। अखबारों से दाल-रोटी भी मुश्किल से निकल पाते हैं। उस पर कोई विवाह आदि आ जाए तो पैर ऊपर होकर ही पीछा छूटे। पिछली आखातीज भानजी का विवाह हुआ तो उसने कर्ज लेकर मायरा भरा। घर में तो रूखी-सूखी खाकर भी चल जाए पर लोगों में तो इज्जत बनाकर रखनी ही पड़ती है। पैडल के साथ उसके मन में विचारों का पहिया भी चल रहा था। एक बरस से मंजु मोबाइल के लिए कहती आ रही है। देर-सवेर हो जाए तो घण्टी करके खबर की जा सकती है। साधन आ जाए तो भाई-मित्रों के भी सुख हो जाए। जिसे देखो वही कान के लगाकर घूमता नजर आता है। इस बार भंवर ने भी तय कर लिया है। मकर संक्रान्ति से पहले मंजु के हाथ में मोबाइल पक्का ही देगा। इस खयाल से ही भंवर का मन प्रसन्न हो गया।
अब भंवर जवाहर नगर जा पहुंचा। यहां के अधिकतर वाशिंदे उसके नियमित ग्राहक हैं। वह फुर्ती से अखबार निकालता और इस तरह से फेंकता कि अखबार सीधे ग्राहक के बरामदे में पहुंच जाता। सात बजे से पहले उसने सभी ग्राहकों के घर अखबार पहुंचा दिए और बचे अखबार लेकर गांधी चौक की ओर रवाना हो गया।गांधी चौक शहर का व्यस्ततम इलाका है। यहां चौराहे के ठीक बीच में हाथ में लाठी लेकर खड़े है गांधी बाबा॥! ऐसा लगता है जैसे सारे शहर की रखवाली कर रहे हों। चौक चुनावी पोस्टरों से अटा हुआ था। निजी वाहनों का अड्डा होने से चौक पर खासा भीड़ रहती है। भंवर ने यहां एक रेहड़ी किराये पर ले रखी थी जिस पर अखबार रखकर वह ग्राहकों का इंतजार करता है। चुनावी खबरों से रंगे अखबारों में से 'आरक्षण आंदोलन में दस की जान गईÓ हैडिंग को ढ़ूंढ़ा भंवर ने और उसे जोर-जोर से बोलकर अखबार बेचने के जुगाड़ में लग गया।
इसी ठण्ड का एक दूसरा दिन। सदा की भांति अखबार बांटकर भंवर गांधी चौक पहुंचा और रेहड़ी पर अखबार जमा लिए। आज उसके चेहरे पर चमक थी। मंजु के साथ आज ही के दिन तो विवाह हुआ था उसका। एकदम बावली है मंजु। खाया-पीया भी याद नहीं रहता उसे। शाम को वह मंजु के हाथ में मोबाइल थमाएगा और 'हैप्पी एनीवर्सरीÓ कहकर 'सरप्राइजÓ देगा। वह कोई अनपढ़-गंवार थोड़े ही है। अखबार बांटना तो मजबूरी है, नहीं तो दसवीं पास तो राज में भी बाबू लग सकता है। भंवर मन ही मन मुस्कराया और जेब से चमकता मोबाइल निकालकर निहारने लगा। अखबार बांटकर आते वक्त उसने दुकान से तीन हजार रुपये में नया रंगीन मोबाइल खरीद लिया था। मन की खुशी उसके चेहरे पर मुस्कान बनकर पसर गई।उसी वक्त जोरदार शोर-शराबे से भंवर के विचारों में विघ्न पड़ गया। नारे लगाती भीड़ चौक की ओर आ रही थी। भीड़ में कई जनों ने बैनर थाम रखे थे, जिन पर मोटे-मोटे अक्षरों में मांगें लिखी हुई थी। इस शोरगुल से भंवर का कलेजा बैठ गया। एक बरस पहले भी नहर में पानी की कमी के खिलाफ आंदोलन हुआ जिसमें शहर को काफी नुकसान झेलना पड़ा था। हिंसा पर उतारू भीड़ ने तीन बसें जला दी तो पुलिस फायरिंग में तीन लोगों की जान गई। दस दिनों तक कफ्र्यू रहा। भंवर जैसे सैंकड़ो लोगों के घर भूखों मरने की नौबत आ गई। उसका मन आशंका से कांप उठा। 'क्या हुआ॥?Ó भंवर का सवाल हवा में ही टंगकर रह गया। चौराहे पर भीड़ और पुलिस आमने-सामने हो गई। आंदोलनकारी जब राजमार्ग रोकने का प्रयास करने लगे तो पुलिस लाठी चार्ज पर उतर आई। चौक पर भगदड़ मच गई। एक क्षण में दुकानों के शटर गिर हो गए। भंवर ने भी रेहड़ी से अखबार समेटने शुरू किए पर.............! भीड़ ने सारा मसला चौक पर ही निपटा दिया। भंवर की रेहड़ी जमीन पर औंधी पड़ी धुक रही थी, जिसका महज एक पहिया साबुत बचा था। अखबारों के टुकड़े फर्र..फर्र.. करते हवा के साथ इधर-उधर उड़ रहे थे। जमीन पर निढ़ाल पड़ा भंवर अपनी जमा पूंजी खोकर सूनी आंखों से आसमान की ओर ताक रहा था। मंजु के सपनों के मोबाइल की किरंचें चौक पर बिखरी पड़ी थी।चौक की दशा यहां कुछ देर पहले छिड़े महाभारत की प्रत्यक्ष कहानी बयान कर रही थी तो इस समूचे ताण्डव के प्रत्यक्षदर्शी गांधी बाबा हाथ में लाठी लिए चौक के एकदम बीच बिल्कुल मौन खड़े थे।
1 टिप्पणी:
बहुत मर्मस्पर्शी कहानी है लढ़ा जी की। एक अच्छी लघुकघा के बहुत करीब! आप राजस्थानी साहित्य को 'रेतराग' के माध्यम से विश्व के हिंदी पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करके सचमुच एक महत्वपूर्ण और सराहनीय कार्य कर रहे हैं।
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