सोमवार, 14 जुलाई 2008

कैक्टस में हाथ



अब नहीं उगते कैक्टस में हाथ
बचपन में मना करती थी
कहा करती थी माँ -
'मत मार बहन को
पाप लगेगा रे, पाप
देख, वह देख
वो काँटों वाला कैक्टस
उगा करत हैं उस में
पापी हाथ'
बच्चे डरते थे तब
लेकिन अब?
अब तो डरता नहीं कोई भी
हाँ,
उगते थे कभी, लेकिन
अब नहीं उगते कैक्टस में हाथ


मूलः जुगल परिहार
अनुवादः नीरज दइया

मंगलवार, 27 मई 2008

मालचंद तिवाडी की कविता



अंतिम दिन यह दुनिया

कविता होगी
अंतिम वृक्ष
प्रीत के मरुस्थलों
निपजेगी केवल प्रीत
चिड़िया लेगी फिर विश्राम
वृक्षों की रेशमी छाँव में ।

पहले दिन की तरह
अंतिम दिन यह दुनिया-
फिर से तेरी मेरी होगी ।



अनुवाद- नीरज दइया


(माल चंद तिवाडी राजस्थानी कवियों की युवतर पीढी के सबसे सम्मानित,महत्वपूर्ण और विख्यात प्रतिनिधि हैं ,कहानियाँ भी उसी धार और प्रवाह से लिखते हैं ,बीकानेर में रिहायश वैसे उपस्थिति ग्लोबल .)

शनिवार, 10 मई 2008

राम राम


राजस्थानी भाषा के समस्त प्रेमियों और शुभचिंतकों को राम राम